Saturday, July 31, 2010
मिलिए पाठा के गांधी से
संदीप रिछारिया
चित्रकूट, 22 जून : उन्होंने जलाई एक मशाल, जिसकी रोशनी से मिटा उपेक्षित कोल समाज के जीवन में छाया अंधेरा। पर यह सुनने में जितना आसान लगता है, गोपाल भाई के लिए भी यह सब उतना आसान नहीं था। हर कदम पर थीं मुश्किलें, पर गांधी जी के दिखाये रास्ते ने बढ़ायी उनकी हिम्मत और वे खुद बन गए पाठा के गांधी।
विकास के नक्शे पर देश-दुनिया से अलग है बिगहना गांव (बांदा)। यहीं एक निर्धन किसान परिवार में वर्ष 1941 में जन्मे गोपाल जैसे-तैसे प्राइमरी तक पढ़ पाये। बचपन में रोटी-कपड़ा-मकान के लिए मोहताज होनहार गोपाल भाई पढ़ना चाहते थे, लेकिन पिता की जेब में फीस के लिए सिक्के नहीं थे। इस कारण कक्षा आठ के बाद स्कूल के दरवाजे बंद हो गये। हां, एक दिन गोपाल के कंठ से फूटे संगीत के स्वर सुनकर हिंदू इंटर कालेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य जगपत सिंह निहाल हो गये। पुचकारा तो बच्चा सुबक पड़ा, बताया कि पढ़ना चाहता है, लेकिन मजबूर है। तब गुरु ने शिष्य को अपने खर्च पर इंटर तक पढ़ाया। इस उपकार का पिछड़ी खंगार जाति के गोपाल पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन समाजसेवा का व्रत ले लिया। और चुना दबे-कुचले लोगों को। सन् 70 के करीब पैतृक गांव के प्रधान हुए। विकास के लिए कदम बढ़ाये, तो अफसरशाही ने डपट दिया। तब ज्यादातर प्रधान अनपढ़ होते थे, लिहाजा अफसर उन्हें जनता का नुमाइंदा समझने के बजाय मातहत समझते। गोपाल भाई ने सबसे पहले अफसरशाही के खिलाफ मोर्चा खोला और बुंदेलखंड के प्रधानों को एकजुट करने के बाद उन्हें अधिकार दिलाये। इस काम को अंतरराष्ट्रीय चर्चा मिली और बीबीसी रेडियो ने गोपाल भाई पर विशेष बुलेटिन निकाला।इसके बाद गोपाल भाई ने कलम की ताकत से निठल्ले प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोला तो आपातकाल में उन्हें अतर्रा से बेदखल कर दिया गया। तब उन्होंने चित्रकूट के पाठा क्षेत्र को कर्मभूमि बनाया। पाठा के दबंग दादू यानी सामंत बेबस कोलों को गुलाम बनाकर रखते। कर्ज देकर इतना सूद वसूलते कि रोटी के लिए मोहताज कोल बिरादरी को एक दिन बीवी भी गिरवी रखनी पड़ती। कोल मर्दो की पीठ पर बरसते कोड़े और महिलाओं की आबरू पर ललचाई नजरों ने गोपाल भाई को झकझोर दिया। उन्होंने कोल बिरादरी को गुलामी से मुक्ति के लिए सामंतों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
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