गुप्‍त गोदावरी- जो आज भी अबूझ पहेली बनी है

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Friday, June 12, 2009

..इन्हें तो सिर्फ निवालों की ही चिंता

Jun 12, 02:08 am
चित्रकूट। 'इन्हें न देश की चिंता है और न ही चिंता है समाज की इन्हें फिक्र है तो बस दो जून के निवालों की' वास्तव में ये बात भी करते हैं दो जून के निवालों की। सरकारें इनका साथ देती हैं अधिकारी चाहते हैं कि इन्हें दो जून की रोटी मिले। सौ दिन का काम भी पूरा मिले पर कभी जाति तो कभी धर्म तो कभी गांव की राजनीति तो कभी 'वोट' रोटी के बीच आ जाता है। फिर इन्हें लगता हैं कि शायद केंद्र सरकार की राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना शायद इनके लिये बनी ही नही। एक महीने रोजगार जब गांव के प्रधान की चिरौरी-विनती करने के बाद नहीं मिला तो फिर ये सूरत और पंजाब का रुख कर लेते हैं। कुछ इस तरह की दास्तान है देश के सर्वाधिक दर्दीले इलाके बुंदेलखंड के इस पवित्र चित्रकूट जिले के उन राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना 'नरेगा' के पात्र कार्ड धारकों की। कार्ड धारकों के पास कार्ड नही अगर है भी तो वह प्रधान के पास है। कई बार शिकायतों और जी हजूरी के बाद काम मिला तो वह जीवन जीने के लिये नाकाफी। कई उदाहरण तो ऐसे कि काम किये हुये वर्षो बीते, मजदूरी पाने के लिये धरना, प्रदर्शन अनशन और अधिकारियों की सहानुभूति व दुत्कार भी सही, पर मामला ठाक के तीन पात रहा।
लगभग तीन सालों से चल रही नरेगा के कामों की पड़ताल करने जब यह संवाददाता मुख्यालय के लगभग अंदर ही बस चुके ग्राम माफी कर्वी में पहुंचा तो जिलाधिकारी इस अंबेडकर गांव में कामों का सत्यापन सभी जिला स्तरीय अधिकारियों के साथ कर रहे थे। दो साल पहले कार्ड बनवाकर काम पाने की हसरत रखने वाले दुजिया को जिलाधिकारी के पास तक फटकने नही दिया गया। राम निहोरे, कैलाश, चंद्र भान और परवतिया ने बताया कि प्रधान नरेगा का काम उन्हीं से करवाता है जो उसकी जी हजूरी करते हैं। वैसे मुख्यालय के समीपवर्ती गांव होने का फायदा इसे मिला और तमाम काम यहां पर प्रधान ने संपादित करवाये। कामों की क्वालिटी भी इस लिये ठीक थी क्योंकि नीचे से ऊपर तक के अधिकारियों की नजरों में रहने के साथ ही भ्रमण में आने वाले उच्चाधिकारियों को यहां का भ्रमण अधिकारी सुगमता से करा देते हैं।
संवाददाता ने दूसरा गांव अंबेडकर ग्राम भारतपुर ग्राम पंचायत के राजस्व ग्राम खपटिहा व रामपुर माफी को चुना। कभी डाकू ठोकिया के आतंक के कारण इस गांव में जाने की हिम्मत अधिकारियों क्या पुलिस की नही होती थी, पर आज उसकी मौत की बाद हालात काफी जुदा दिखाई दे रहे हैं। दबंग प्रधान व सचिव की त्रासना का शिकार सभी मजदूर हैं। दो साल पहले यहां पर रोजगार गारंटी से बनी सड़क की मजदूरी दर्जनों बार प्रदर्शन व अनशनों के बाद भी नही मिली। काम देने की हालत यह है कि वर्ष 2007 में बने तमाम कार्डो पर कही दस दिन तो कहीं पर पन्द्रह से बीस दिन की मजदूरी चढ़ी दिखाई देती है। गांव के मजदूर अधिकांश पंजाब जाकर कमाने या फिर अस्सी प्रतिशत लोग मौत के मुंह में घुसकर खदानों में पत्थर तोड़ने के काम का यकीन सिर्फ इस लिये करते हैं क्योंकि वहां पर काम करने के बाद पैसा चोखा मिलता है।
अधिकारी की जुबानी
नरेगा के मामले में परियोजना निदेशक राम किशुन साफ हैं। कहते हैं कि उनका काम ग्राम पंचायतों के काम के आधार पर पैसा देना है। इस वर्ष की कुल उपलब्ध धनराशि 1507.97 लाख में 136.54 लाख व्यय करके 6027 कामों को शुरु करवा दिया गया है। हर काम को देखने के लिये अधिकारी मौके पर लगातार जाते हैं। जहां कहीं भी शिकायतें मिलती है उन्हें दूर किया जाता है।
समस्यायें मजदूरों की
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के निर्देशों का पालन कोई भी ग्राम पंचायत नही करती। इस बात की तस्दीक अक्सर अधिकारी भी करते हैं। पानी, दवा या फिर बच्चों को खिलाने के लिये एक श्रमिक कहीं पर कभी मिला ही नहीं। मजदूरों को बैठकर सुस्ताने के लिये भी छाया की व्यवस्था कहीं होती दिखाई नही दी। मजदूर कहते हैं कि काम पूरा होने के बाद पैसा मिल जाये यही काफी है।

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