गुप्‍त गोदावरी- जो आज भी अबूझ पहेली बनी है

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Sunday, September 27, 2009

भगवान राम के आर्शीवाद का फल इलेक्ट्रा चित्रकूटसिन्स

संदीप रिछारिया
चित्रकूट। 'धर्म न अर्थ न काम रुचि, गति न चहौं निर्वाण, जन्म-जन्म श्री राम पद यहि वर मागौं आन।' यह एक ऐसा वरदान जो किसी और ने नही बल्कि एक ऐसे राक्षस ने मांगा था जिसके कारण मां सीता के पैरों में चुभन के साथ ही रक्त निकला था, पर इसे क्या कहेंगे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने उसे वरदान तो दिया ही साथ ही उस तपस्थली को एक ऐसी जड़ी बूटी से भर दिया जिसको उपयोग कर लोग दमा, स्वांस और पुरानी खांसी जैसी असाध्य बीमारी से छुटकारा पा जाते हैं। विश्व प्रसिद्ध तपोस्थली चित्रकूट पर शरद पूर्णिमा की रात देश व विदेश से आने वाले इन रोगों के रोगी इस बात के गवाह हैं कि उन्हें यहां पर दमा, स्वांस और पुरानी खांसी जैसी बीमारी से निजात मिली है।

देहाती भाषा में बोली जाने वाली मेढ़की पूरे देश में निर्गुन्डी के रूप में जानी जाती है पर यहां पर जमीन से अपने आप पैदा होने वाली निर्गुन्डी अपने आप में विलक्षण है। इसकी खोज तो वैसे परिक्षेत्र में रहने वाले ऋषि मुनियों ने सदियों पहले कर ली थी और वे इससे लोगों की बीमारी का इलाज किया करते थे। समय के बीतने और आयुर्वेद को वैज्ञानिक मान्यता दिलाने में अग्रणी रहे वैद्यनाथ कंपनी के संस्थापक आचार्य स्व. राम नारायण शर्मा ने सबसे पहले आरोग्य प्रकाश में इस जड़ी बूटी का उल्लेख किया था। इस बात की पुष्टि बांदा जिले के नरैनी दिव्य चिकित्सा भवन नाम से आयुर्वेद केंद्र चला रहे आयुष के राष्ट्रीय अध्यक्ष वैद्य डा. मदन गोपाल बाजपेई ने बताया कि सन् 1963 में आरोग्य प्रकाश में वैद्य जी ने इस अनोखी जड़ी का वर्णन करते हुये लिखा है कि यह ही चरक का मुख्य सूत्र है। इसका उपयोग करने से मनुष्य आजीवन निरोगी रह सकता है। अत्यंत पौष्टिक पीले रंग का यह कंद वीर्य वर्धक, वात नाशक होता है। चित्रकूट परिक्षेत्र के जंगलों में पाया जाना वाला यह कंद अत्यंत विलक्षण है।
इस बात की तस्दीक आधुनिक विज्ञान के लोगों ने भी दीन दयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत काम कर रहे आरोग्य धाम की रस शाला के प्रबंधक डा. विजय प्रताप सिंह कहते हैं नेशनल बाटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट लखनऊ के वनस्पति विज्ञान के वैज्ञानिकों ने इसको जांच परख कर नाम इलेक्ट्रा चित्रकूटसिन्स नाम दिया। निगुन्डी का सहजीवी यह पौधा केवल चित्रकूट परिक्षेत्र में मिलता है। बात रोग के साथ ही चर्म रोग में इसका मुख्य उपयोग किया जाता है। उन्होंने सितम्बर से फरवरी के मध्य पाये जाने वाले इस पौधे के बारे में बताया कि वैसे तो यह स्फटिक शिला के आसपास काफी मात्रा में होता है पर जिले में अनुसुइया आश्रम, सूर्य कुंड, बरगढ़ व लोढ़वारा आदि जगहों पर भी पाया जाता है। बताया कि इस जड़ी पर अभी दीन दयाल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं। समय आने पर इसके और भी औषधीय प्रभावों की जानकारी हो सकेगी।

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